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कलम की रोशनाई की स्याही सुखती रही
खाली कागज की तरफ मैं देखता ही रहा
ज़हन के सवाल ने कितना मुझे तंग किया
फिर भी उधेड़बुन फ़िकरा बन संग रहा
सुन्न अँधेरा सा फैला पता नही कहाँ तलक
दिखाई ना दी झलक कोई साया खोया रहा
जान ना पहचान फिरभी अनजाना अपनापन
तकदीर के बरतन में क्या कुछ घुल रहा
कलम की ...
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मैं भीड़ का अंग बना भीड़ में खड़ा रहा
दर्द हमदर्द बना भीड़ का मुँह चढ़ा रहा
दिवार के सिरे से वापस लौटा हूँ मैं
देर तक ही सही डर का डर बना रहा
तुमने पलट के नहीं देखा तुम जानो
मैने देखा फ़ासला युगों बड़ा रहा
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आधार एक और सगे रिश्ते का
रहा तो सिरफ सिरफ हवा को रहा
जो मोहब्बत की परीकल्पना थी
हर हकीकत , पहुँच से परे ही रही
एक एहसास फ़िज़ा में रहा मगर
बना विश्वास बहुत समय ना रहा
अक्ल शक्ल की नकल के चैहरे
ठहरे पानी से गैहरे मैं देखता रहा
कलम की ...
#सारस्वत
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